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Friday, June 11, 2010

what is yoga..

Yoga comes from the word yoke which means union. Yoga is the union between the finite self and the infinite self. What does this mean? The finite self is the physical body and the experiences that we have through the physical body. Everyone can relate to the physical body because it can be seen and it can be touched. What is the infinite body then? The infinite self is the inner self, the higher self, the spiritual self... continue



Everybody has their own idea of what yoga is. Some believe it to be an Eastern religion while others view it as a strenuous workout. Neither perception is entirely true because Yoga is comprised of many things. Most of us know the 21st century version of Yoga, but we may not fully understand the intentions of those who created Yoga many, many years ago. If more people fully knew the foundation of Yoga - from beginning to present - many might be inclined to take up the practice... continue


Saturday, May 8, 2010

sex aur society

सेक्स का सामाजिक सन्दर्भ और मानव
सेक्स और समाज की अब तक प्रकाशित कड़ियों को आप सुधीजनों की खूब सराहना मिली है . दरअसल ,प्रचलित धारणाओं से हटकर लिखने -बोलने पर बहुत कम प्रशंसा मिलती है ,अक्सर गालियाँ हीं खानी पड़ती हैं . सेक्स आज भी कौतुहल का विषय बना हुआ है , किसी रहस्य से कम नहीं है . और इस मुद्दे पर विभिन्न यौन आसनों के अलावा बहुत कम लिखा पढ़ा गया है .हालाँकि ओशो,फ्रायड जैसे दो चार तथाकथित सिरफिरे दार्शनिकों ने इसके इतर जरुर रौशनी डाली लेकिन अमेरिका जैसे खुले समाज में उसे जेल में डाल दिया गया .मैंने जब इस स्तम्भ का नाम सेक्स और समाज रखा तो मेरे एक मित्र ने सवाल उठाया था – "सेक्स के साथ समाज का क्या सम्बन्ध ? यह तो बंद कमरे की चीज है !" बात सही है अब तक हम यही तो सुनते आये हैं . पर क्या यही सच है अथवा यहाँ भी सच को खोजे जाने की आवश्यकता है . समाज मानव से बनता है और मानव सेक्स की हीं तो उत्पत्ति है .समस्त सृष्टि के सजीव प्राणियों की जन्मदात्री प्रक्रिया है सेक्स या सम्भोग .आज सेक्स के आध्यात्मिक और सामाजिक सन्दर्भों को समझने की नितांत आवश्यकता है .सेक्स की समकालीन दशा अब तक की सबसे दयनीय अवस्था में है .इस प्राकृतिक उपक्रम का हर दिन अवमूल्यन होता जा रहा है .पिछली कड़ियों में सेक्स की वास्तविक आवश्यकता और मानव जीवन में इसकी भूमिका की चर्चा की जा चुकी है . सेक्स स्वस्थ और प्रसन्न मन से आनंद प्राप्ति की एक प्रक्रिया है जिसको सही सन्दर्भों में जान कर हीं जीवन का अंतिम लक्ष्य माने मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है .जीवन में सेक्स की उपयोगिता महज संतानोत्पत्ति और दैहिक सुख प्राप्त करना नहीं है .सेक्स से मिलने वाले आत्मिक आनंद को जुटा कर हीं प्रेम का अनुभव किया जा सकता है .और जब तक प्रेम का जन्म नहीं होगा ईश्वर से मिलन संभव नहीं है .प्रेम को ईश्वर से साक्षात्कार में एकमात्र जरिए माना गया है .और सेक्स प्रेम की पहली सीढ़ी है .वैसे तो ईश्वर को पाने के कई मार्ग योग ,भजन , समाधी आदि बताये गये हैं लेकिन सामान्य मनुष्य के लिए इन रास्तों पर चलना सहज नहीं है . सेक्स से प्रेम और प्रेम के सहारे ईश्वर तक जाने की राह सहज और सुलभ है . जनसामान्य में आज सेक्स को लेकर रुझान तो बढा है लेकिन सही अर्थों को समझने के बजाय लोग विकृति की ओर बढ़ते जा रहे हैं .नित नए आविष्कारों ने मनुष्य को भौतिक सुख -सुविधा में इतना उलझा दिया है कि आँखें सत्य को देख नहीं पा रही हैं . जीवन के अंतिम लक्ष्य तक ले जाने का साधन और उसकी उर्जा को नकारात्मक रूप में देखा जाने लगा . काम बिस्तर तक हीं सिमट कर रह गया है जिसका लक्ष्य बस एक विपरीतलिंगी अथवा समलिंगी जोड़े की क्षणिक संतुष्टी भर रह गयी है .सेक्स मन बहलाने का खिलौना बन गया है . आज कल सुरक्षित सेक्स का प्रचार प्रसार जोरों पर है .सेक्स जनित रोगों और सामाजिक परम्पराओं को बचाने के नाम पर कंडोम जैसी वस्तु गयी है . जिसे करीब -करीब सामाजिक मान्यता भी मिल चुकी है .आज सेक्स टॉय जैसी कृत्रिम साधनों का उपयोग होने लगा है . ऐसे में मुझे एक दोस्त की बात याद आती है जो अक्सर कहता था "वो दिन दूर नहीं है जब सेक्स के लिए आदमी की जरुरत ख़त्म हो जायेगी और यह काम भी माउस की एक क्लिक से संभव हो जायेगा ".
जिन चीजों से बचने के नाम पर सुरक्षा के इन उपायों का उपयोग हो रहा है वो चीजें उतनी हीं फैलती जा रही है .आदमी को मालुम है कि कंडोम के प्रयोग से से उसका फायदा हीं फायदा है . { इसे नजदीक का फायदा कहना उचित होगा .वैसे हम इंसानों को दूर के हानि -लाभ की चिंता होती तो यह दिन नहीं देखना पड़ता } फायदा इस मायने में कि अपनी मनमानी करते हुए ना तो शारीरिक नुकसान का डर है और ना हीं चारित्रिक . तो हम बार- बार उसी अनैतिक सेक्स में उलझे हैं . शारीरिक नुकसान तो आप समझ गये होंगे . चारित्रिक हानि इसलिए कि हमारा चरित्र वही है जो समाज को दिखता है . और कंडोम का इस्तेमाल मर्द और औरत को सामाजिक लांछन से साफ बचा लेता है .कंडोम का इस्तेमाल वृहत पैमाने पर किस तरह के सेक्स में होता है यह भी आप बखूबी जानते हैं .आदमी गलत कामों से मुंह केवल इसीलिए मोड़ता है ताकि दूसरों की नज़र में सद्चरित्र बना रह सके .नहीं तो कुछ बातें गलत होने के बावजूद भी बने रहते हैं क्योंकि समाज में उसका चलन है . गलत या सही , पाप अथवा पुन्य व्यक्ति सापेक्ष होता है परन्तु सब समाज को दिखाने भर के लिए रह गया है . हम भौतिक सुख-सुविधाओं के अर्जन में समाज का ख्याल करते हैं अपना नहीं लेकिन आत्मिक /आध्यत्मिक सुख के लिए समाज की चिंता सताने लगती है .अधिक से अधिक सुविधाओं को जुटाने के समय मन को समाज के बहुसंख्यक लोगों का ख्याल नहीं आता है . दूसरो का हक़ छीनते समय हमें किसी बात का ख्याल नहीं रहता है जबकि आत्मिक सुख / आत्मिक ज्ञान / आत्मिक अनुभव के सम्बन्ध में समाज की याद जोर मारने लगती है .हम समाज के चलन की हर एक बात का ध्यान रखते हैं . क्यों हम अपने सच को नहीं ढूंढ़ पाते हैं और संसार के अब तक की गलतियों में फंस कर रह जाते हैं

सेक्स से प्रेम का प्रस्फुटन

पिछले दिनों कई पोस्ट में मैंने सेक्स और समाज को मुद्दा बना लिखा .आम तौर पर लोगों ने मज़े लेने के लिए पढ़े और वाहवाही कर चलते बने . हाँ कुछेक साथियों ने बहस में भाग लेने की कोशिश जरुर की जो कामयाब न हो पाई . सेक्स की बात सुन कर हम मन ही मन रोमांचित होते हैं .जब भी मौका हो सेक्स की चर्चा में शामिल होने से नहीं चूकते .इंटरनेट पर सबसे अधिक सेक्स को हीं सर्च करते हैं . लेकिन हम इस पर स्वस्थ संवाद /चिंतन/ मंथन करने से सदैव घबराते रहे हैं और आज भी घबराते हैं .आज ही एक पाठक स्वप्निल जी ने समलैंगिकता से सम्बंधित पोस्ट पर प्रतिक्रिया देते हुए इस संवाद को बढाया है.स्वप्निल जी के शंकाओं का समाधान " law of reverse effect " में छुपा हुआ है .अनेक विद्वानों ने सेक्स को जीवन का बही आवरण बताया है जिसको भेदे बिना जीवन के अंतिम लक्ष्य अर्थात मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है . सेक्स अर्थात काम जिन्दगी की ऐसी नदिया है जिसमें तैरकर हीं मन रूपी गोताखोर साहिल यानी परमात्मा तक पहुँचता है .

"एक बार ओशो अपने साथियों के संग खजुराहो घूमने गये . वहां मंदिर की बही दीवारों पर मैथुनरत चित्रों व काम-वासनाओं की मूर्तियों को देख कर सभी आश्चर्यचकित को पूछने लगे यह क्या है ? ओशो ने कहा ,जिन्होंने इन मंदिरों का निर्माण किया वो बड़े समझदार थे . उनकी मान्यता यह थी कि जीवन की बाहरी परिधि काम है . और जो लोग अभी काम से उलझे है ,उनको मंदिर के भीतर प्रवेश का कोई अधिकार नहीं है .फ़िर अपने मित्रों को लेकर मंदिर के भीतर पहुंचे .वहां कोई काम-प्रतिमा नहीं थी ,वहां भगवान् की मूर्ति विराजमान थी . वे कहने लगे ,जीवन के बाह्य परिधि,दीवाल पर काम-वासना है .मनुष्य को पहले बाहरी दीवार का हीं चक्कर लगाना पड़ेगा .पहले सेक्स को समझो जब उसे समझ जाओगे तब महसूस होगा कि हम उससे मुक्त हो गये हैं तो भीतर खुद बखुद आ जाओगे .तद्पश्चात परमात्मा से मिलन संभव हो सकता है . "

आदमी ने धर्म ,नैतिकता , आदि के नाम पर सेक्स को दबाना आरम्भ किया .हमने क्या -क्या सेक्स के नाम पर खाया इसका हिसाब लगाया है कभी ? आदमी को छोड़ कर ,आदमी भी कहना गलत है ,सभी आदमी को छोड़ कर समलैंगिकता /होमोसेक्सुँलिटी जैसी कोई चीज है कहीं ? जंगल में रहने वाले आदिवासिओं ने कभी इस बात की कल्पना नहीं की होगी कि पुरुष और पुरुष ,स्त्रिऔर स्त्री आपस में सम्भोग कर सकते हैं ! लेकिन सभी समाज के आंकड़े कुछ और हीं कहते हैं .पश्चिम के देशों को जाने दीजिये अब तो विकासशील देश भारत में भी उनके क्लब / संगठन बनने लगे हैं जो समलैंगिकता को कानूनी और सामाजिक मान्यता देने की बात लडाई लड़ रहे है .होमोसेक्स के पक्षधर मानते हैं - " यह ठीक है इसलिए उन्हें मान्यता मिलनी चाहिए . अगर नहीं मिलती है तो यह अल्पसंख्यकों के ऊपर हमला है हमारा .दो आदमी अपनी मर्जी से साथ रहना चाहते हैं तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए " ऐसे लोग खुलापन लाने की बात करते हैं .अरे , भाई इस समाज में प्राकृतिक सेक्स को लेकर खुलापन नहीं आ पाया है तब गैर प्राकृतिक सेक्स के सन्दर्भ में खुलापन कैसा ?

आप सोच नहीं सकते यह होमो का विचार कैसे जन्मा ! दरअसल यह सेक्स के प्रति मानव समाज की लड़ाई का परिणाम है . सेक्स को केवल चंद मिनटों के मज़े का उपक्रम समझने की भूल है .जितना साभ्य समाज उतनी वेश्याएं हैं ! किसी आदिवासी गाँव या कसबे में वेश्या खोज सकते हैं आप ? आदमी जितना सभी हुआ सेक्स विकृत होता गया . सेक्स को जितना नकारने की कोशिश हुई उतना हीं उल्टा नतीजा आता गया . इसका जिम्मा उन लोगों के कंधे पर है जिन्होंने सेक्स को समझने के बजे उससे लड़ना शुरू कर दिया . दमित सेक्स की भावना गलत रास्तों से बहने लगी .नदी अगर रास्ते की रुकावटों के कारण अपना पथ भूल कर गलत दिशा में जहाँ गाँव बसे हैं बहने लगे तो क्या उसे रोका नहीं जायेगा ?

काम / सेक्स का हमारे वर्तमान जीवन मात्र से सम्बन्ध नहीं है अपितु जीवन के आरम्भ ,उसके अंत और उसके उपरांत भी बना हुआ है . सेक्स प्रेम का जनक है और प्रेम आत्मा से परमात्मा तक जाने का जरिया . ओशो ने कहा ; काम के आकर्षण का आधार क्या है इसे समझ लेना अत्यंत आवश्यक है और यदि उस आधार पर टिके रहा जाए तो काम का राम में परिवर्तन होते देर नहीं है . ओशो को लोग सेक्स का पक्षपाती मानते हैं जबकि ऐसा नहीं है . उन्होंने काम की उर्जा को सही दिशा में ले जाने की बात कही है .

स्वप्निल जी समलैंगिकता को विकृति नहीं मानते मैं सेक्स को पाप नहीं मानता .राजेंद्र यादव और अरुंधती सरीखे काम के ज्ञाता होमो -हेट्रो सभी तरह के सेक्स को मानते हैं पर शादी को नहीं मानते .अब साहब हमारा आपका मानना कोई चिरंतन सत्य तो नहीं है .बाबा रामदेव जैसे योग गुरु और दुनिया के अनेक चिकित्सक लोगों का मानना है यह एक हार्मोनल डिसआर्डर है . रामदेव जी ने तो यहाँ तक कहा कि जब मेंटल डिसआर्डर ठीक हो सकता है ,कैंसर ठीक हो सकता है तब होमो डिसआर्डर क्यों नहीं ? खैर , ये तो चर्चा का विषय है . समाज अक्सर भटकाव का शिकार होता है . इसी देश में आज से ४-५ सौ साल पहले से अब तक का कालखंड अनेक कुरीतियों में फंसा रहा जिन्हें तत्कालीन समाज के लोग सही मानते थे .क्या तब कोई साधारण आदमी तमाम अंधविश्वासों को गलत मानने को तैयार था ? नहीं , छोटे वर्ग में फैली तमाम कुरीतियाँ/विकृतियाँ शनैः शनैः विस्तार लेती गयी .हो सकता है आज अल्पसंख्यक गे और लेस्बियन लोग कल को बहुसंख्यक हो जाएँ . वैसे भी गलत चीजों को फैलते देर नहीं लगती है . लेकिन याद रहे वो समय भी जब अपने समय से दूर भविष्य की सोचने वाले लोगों ने समाज को नई दिशा दी है . हमारा देश कई बार जगा है और अपनी निरंतरता को बनाये हुए है . स्वप्निल जी बदलाव से हम डरे नहीं .चर्चा होनी चाहिए और होमो कोई विषय नहीं है . हमारा विषय तो सेक्स और समाज है जिसमें एक पैरा होमो को मान कर चलना चाहिए . सेक्स जिस चीज के लिए आतुरता पैदा करता है उसे पा लें तो सारी झंझट ही ख़त्म ! लेकिन उस शांति को हमने छिछोरेपन में मज़े का स्वरुप दे दिया है . अपने अन्दर के प्रेम को बाहर लाने की जरुरत है .पर कैसे होगा ? हम जमीन का बाहरी आवरण हटा कर इस आस में बैठे हैं कि बारिश होगी तब पानी जमा होगा फ़िर पियेंगे .जबकि जरा सा गड्डा और खोद कर अन्दर का जाल प्राप्त हो सकता है . ठीक उसी प्रकार मन में बसे प्रेम को बाहर तलाशने से क्या होगा ? प्रेम तभी प्रकटित हो पायेगा जब उसे जगह मिल पायेगी .खाली ग्लास को पानी से भरी हुई बाल्टी में उलट कर रखने पर एक बूंद पानी नहीं जा पाती है क्योंकि उसमें पहले से वायु भरा होता है .उसी प्रकार सेक्स के दमन ने दिल-दिमाग पर सेक्स का कब्जा करवा दिया है . जब तक दिमाग को सेक्स के कब्जे से मुक्त नहीं करेंगे प्रेम प्रकट नहीं हो पायेगा . और ऐसा तभी होगा जब सेक्स को समझा जाए ,उसे अनुभव किया